नई दिल्ली: Google Doodle Today: गूगल डूडल आज डैनिश माइक्रोबायोलॉजिस्ट हैंस क्रिश्चियन ग्रैम (Danish Microbiologist Hans Christian Gram) का 166वां जन्मदिवस मना रहा है. वह ग्रैम स्टेन (Gram stain) के विकास के लिए जाने जाते थे. डैनिश आर्टिस्ट मिक्केल सोमर (Mikkel Sommer) ने इस गूगल डूडल (Google Doodle) को बनाया है, इस डूडल के जरिए उन्होंने हैंस क्रिश्चियन ग्रैम के काम को दिखाया है. इसमें हैंस को ग्रैम स्टेन (Hans Gram stain) पर काम करते हुए दिखाया गया है. हैंस क्रिश्चियन ग्रैम (Hans Christian) का जन्म 1853 में डेनमार्क के कोपेनहैगन में हुआ था. उन्होंने माइक्रोस्कोप से बैक्टीरिया (Bacteria) का पता लगाने वाली खास तकनीक की खोज 1884 में की थी.
इंजीनियर बोला-काम हो जाएगा, शाम को घर आना, यह सुनते ही लेडी ने पीटने उतार ली चप्पल
हैंस क्रिश्चियन ग्रैम (Hans Christian Gram) ने साल 1878 में कोपेनहैगन यूनिवर्सिटी से डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की डिग्री हासिल की. इसके बाद वो बैक्टिरियोलॉजी और फार्मालॉजी की पढ़ाई करने यूरोप चले गए. बर्लिन की माइक्रोबायोजिल्ट लैब में काम करते हुए उन्होंने नोटिस किया कि बैक्टिरिया के धब्बे को क्रिस्टल वॉयलेट स्टेन (आयोडीन सॉल्यूशन और ऑर्गेनिक सोलवेंट) में मिलाने से अलग-अलग सैंपल में अलग स्ट्रक्चर और बायोकेमिकल फंक्शन मिले.

हैंस क्रिश्चियन ग्रैम ने 1884 में एक जर्नल में ग्रैम-पॉज़िटिव (Gram-positive) और ग्रैम नेगेटिव (Gram-negative) नाम से अपनी खोज को पब्लिश किया. साथ ही बताया कि ग्रैम पॉज़िटिव बैक्टिरिया (Gram-Positive Bacteria) माइक्रोस्कोप से पर्पल कलर का दिखा, क्योंकि सेल की लेयर काफी मोटी थी जिस वजह से वो घुल नहीं पाई. वहीं, ग्रैम नेगेटिव बैक्टिरिया (Gram-Negative Bacteria) की सेल काफी पतले थे, जिस वजह से वो घुल पाए.
आर्बिटर की भेजी तस्वीरों से विक्रम की लोकेशन मिली, लेकिन लैंडर से नहीं हो पाया संपर्क: इसरो
जर्नल में हैंस क्रिश्चियन ग्रैम ने लिखा, “मैं इस विधि को पब्लिश कर रहा हूं, हालांकि मुझे मालूम है कि ये अभी अधूरी है और इसमें कई दोष मौजूद हैं, लेकिन मुझे उम्मीद है कि कोई खोजकर्ता इस जर्नल को पढ़ेगा और इस विधि को आगे बढ़ाने में सफलता मिलेगी.”
डैनिश वैज्ञानिक हैंस क्रिश्चियन (Danish Microbiologist) की 85 की उम्र में साल 1938 में मौत हो गई. ग्रैम स्टेनिंग (Gram Staining) तकनीक का इस्तेमाल माइक्रोबायोलॉजी के इतिहास में उनकी मौत के बाद भी किया जाता रहा और आज भी किया जा रहा है. उनके द्वारा इजाद की गई इस तकनीक का इस्तेमाल आज भी बायोल़ॉजी स्टूडेंट (Biology Student) लैब में करते हैं.