मृत्युदंड के 75 फीसदी आरोपी वंचित तबके से ही क्यों?

मृत्युदंड के 75 फीसदी आरोपी वंचित तबके से ही क्यों?

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यंगशाला और आवाज की श्रंखला “रूबरू” के तहत “मृत्युदंड” पर विमर्श

यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाता है पूरे तंत्र और समाज का फेलियर है क्योंकि अपराधी भी इसी समाज के हिस्से हैं और उन्हें एक बेहतर दिशा देना तंत्र का, समाज का काम है| यदि आपका यह कहना है कि जघन्य अपराधों खासकर बलात्कार जैसे मसलों में फांसी दिया जाना ही अंतिम और बेहतर विकल्प है तो फिर यह तथ्य भी आप को ध्यान में रखना होगा कि बच्चों के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा की घटनाओं में 95% अपराधी पीड़ित के परिचित या सगे संबंधी ही होते हैं| फिर यदि फांसी ही अंतिम विकल्प है तो इन परिचितों, परिजनों को भी फांसी होनी चाहिए लेकिन परिचित और परिजनों की फांसी के मामले में हमारा अनुभव यह कहता है कि इसमें पीड़ित तुरंत होस्टाइल हो जाते हैं क्योंकि वह परिजनों के खिलाफ नहीं जाना चाहते हैं| यह बात आज यंगशाला और आवाज द्वारा बैठक द आर्ट हाउस में आयोजित रूबरू श्रंखला के तहत “मृत्युदंड” विषय पर चर्चा के दौरान प्रोजेक्ट 39ए, दिल्ली से आये विशेषज्ञ राहिल चटर्जी ने कही|

प्रोजेक्ट 39ए की ही दूसरी विशेषज्ञ वक्ता नीतिका विश्वनाथ ने कहा कि फांसी की सजा देना दरअसल सरकारों के लिए आसान रास्ता है क्योंकि इसमें सरकार को तंत्र की मजबूती और बेहतरी के लिए काम करना, संसाधन लगाने आदि की आवश्यकता नहीं होती है| इसके अलावा इसका ठीकरा भी सरकारें गाहे बगाहे जनता के ऊपर ही फोड़ती हैं

यदि किसी व्यक्ति को मृत्यु दंड दिया जाता है तो यह समाज और तंत्र दोनों का फेलियर है : राहेल

इसलिये जनता को यह समझना होगा कि आप को फांसी की मांग करना है यह तंत्र में सुधार की बात करनी है !! नीतिका ने यह भी कहा कि अपराधी कोई एलियन नहीं है किसी अन्य गृह से नहीं आते हैं| बेरोजगारी, गरीबी, निराशा, सामाजिक आर्थिक तंत्र का टूटना, गैर बराबरी, असमानता, निरक्षरता, अन्याय यह सब ऐसे मसले हैं जिनके चलते एक व्यक्ति अपराधी बनता है| और जब वह अपराध कारित कर देता है तब हम यह मांग नहीं करते हैं कि इन समस्याओं को हटाया जाये बल्कि हमारी मांग होती है फांसी पर लटका देना| इसी कारण अपराधी मरते हैं लेकिन अपराधों में कटौती नहीं हो रही है| फांसी की सजा की मांग करने से पहले हमें इस परिदृश्य को, इस चक्र को हमें समझने की बहुत जरूरत है|

इसके पहले विषय प्रवेश करते हुए आवाज के प्रशांत दुबे ने कहा कि हमें यह देखना बहुत जरूरी है कि दरअसल फांसी की सजा हमारे देश में किसे दी जा रही है और उसके पीछे कारण क्या हैं? आपको जानकर हैरानी होगी कि आजादी के बाद से अभी तक केवल 57 लोगों को ही फांसी की सजा सुनाई गई है| जिसमें भी वर्ष 2000 के बाद केवल चार लोगों को ही फांसी की सजा दी गई है| उन्होंने यह भी कहा कि अभी लगभग भारत अभी भारत में लगभग 390 मामले लंबित हैं| फांसी की सजा को लेकर उन्होंने कहा कि भारत जैसे देश में विरोधाभास भी है क्योंकि एक तरफ भारत देश ने मानव अधिकार संधि को अंगीकार किया है जबकि दूसरी ओर इसी भारत देश में हमारी सरकार मृत्युदंड का समर्थन करती है|

उन्होंने यह भी कहा कि हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि अभी तक भारत देश में जितने लोगों पर फांसी की सजा सुनाई गई है उनमें से 75 फ़ीसदी लोग वंचित तबकों (दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक) से आते हैं| ये वही लोग हैं जिनके पास अपनी पैरवी करने के लिए अच्छे वकील उपलब्ध नहीं थे, जिनको इस तंत्र का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ| ऐसी स्थिति में मुझे और आपको तय करना है कि इस देश में मृत्युदंड जैसी सजा दी जानी चाहिए या नहीं

इस संवाद में बड़े पैमाने पर युवा साथी शामिल हुए

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