17 दिसंबर को भोपाल में जब कमलनाथ मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने मंच पर पहुंचे तो उनके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया साथ-साथ थे. दिग्विजय सिंह समारोह में मौजूद तो थे, लेकिन मंच से नीचे.
दिग्विजय मंच के नीचे ज़रूर थे, लेकिन कमलनाथ के शपथ लेने से उनके दिल को ही सबसे ज़्यादा ठंडक पहुंची होगी और इसकी एक नहीं दो वजह हैं.
पहली वजह तो यही है कि बीते 15 साल से राज्य में कांग्रेस की खस्ताहालत के लिए उन्हें ही लगातार ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा था. दिग्विजय 15 साल की बदनामी के दौर से अब उबर गए हैं.
दूसरी वजह है एक पुराना क़र्ज़, जिसे उन्होंने अब चुकाया है.
पहले बात बदनामी वाले दौर की. दरअसल 15 साल पहले, 2003 में जब दिग्विजिय सिंह, 10 साल तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद चुनाव हारे थे, तब तक उनका नाम ‘मिस्टर बंटाधार’ के तौर पर मशहूर हो चुका था. 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान दिग्विजय सिंह को ये नाम उमा भारती ने दिया था, जो चुनाव जीतकर बाद में राज्य की मुख्यमंत्री भी बनी थीं.
उनकी पहचान ऐसे नेता की बन चुकी थी जिसने मध्य प्रदेश के लोगों का बंटाधार कर दिया. प्रदेश में बिजली, सड़क और पानी को लेकर आम लोगों में 2003 में इतनी नाराज़गी थी कि वो आने वाले दस सालों तक ख़त्म नहीं हुई थी.
भारतीय जनता पार्टी ने इस जनभावना को बख़ूबी 2008 और 2013 में राज्य के चुनाव को शिवराज बनाम दिग्विजय सिंह की लड़ाई के तौर पर पेश किया था. शिवराज सिंह ने 2013 में भी यही कोशिश की, लेकिन इस बार कांग्रेस की रणनीति ने उन्हें विपक्ष में बैठा दिया.

परदे के पीछे से रणनीति
पार्टी आलाकमान ने दिग्विजय सिंह के चेहरे को पीछे करते हुए राज्य के अपने दो बड़े नेताओं कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को सामने कर दिया. दिग्विजय पीछे ज़रूर थे, लेकिन परदे के पीछे रणनीति बनाने में उनका अहम योगदान रहा.
दिग्विजय सिंह के छोटे भाई और कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा के लिए चुने गए लक्ष्मण सिंह कहते हैं, “मध्य प्रदेश की जीत में तीनों का अहम योगदान रहा है, किसी का कम और किसी का ज़्यादा करके देखना ठीक नहीं होगा. दरअसल जिन्हें जो भूमिका दी गई थी, उसे उन लोगों ने बख़ूबी निभाया.”
लक्ष्मण सिंह जीत के लिए दिग्विजिय-कमलनाथ-ज्योतिरादित्य की तिकड़ी को बराबरी का श्रेय दे रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश की राजनीति पर नज़र रखने वालों की मानें तो इस बार दिग्विजय सिंह किंग मेकर की भूमिका में रहे हैं.
राज्य के वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, “दिग्विजय सिंह भले मंच पर नहीं दिखे हों लेकिन परदे के पीछे सबसे अहम योगदान उनका ही रहा है. रणनीतिक तौर पर उन्होंने अपने काम को ओवरप्ले नहीं किया लेकिन पूरे राज्य में कांग्रेस को उन्होंने ही मुक़ाबले में लाने का काम किया है.”
दरअसल, चुनाव से कई महीने पहले उन्होंने 192 दिनों तक, यानी छह महीने से भी लंबे समय तक नर्मदा परिक्रमा पदयात्रा करके राज्य में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को नए उत्साह से भर दिया था. 3,300 किलोमीटर की यात्रा के दौरान करीब 140 विधानसभा क्षेत्रों में दिग्विजय सिंह ने कवर किया था.
इस यात्रा के बारे में दिग्विजय सिंह ने चुनाव से पहले बीबीसी को बताया था, “छह महीने की नर्मदा परिक्रमा यात्रा के तहत मुझसे ढेरों लोग मिले, किसान, व्यापारी, ब्यूरोक्रेट्स, हर वर्ग का आदमी बेहद दुखी है, सब नाराज़ हैं. कमलनाथ जी रणनीति बना रहे हैं, हम लोग मिलकर चुनाव लड़ेंगे और सरकार बनाएंगे.”
नर्मदा परिक्रमा यात्रा के बाद दिग्विजय सिंह ने एक और बड़ी भूमिका निभाई. उन्होंने चुनाव से ठीक पहले राज्य में एक समन्यव यात्रा निकाली, जिसका मुख्य उद्देश्य ही नाराज़ कांग्रेसियों को मनाना था. इस बार दिग्विजय सिंह ने राज्य के 11 संभागों की यात्रा की और हर संभाग में अपने हिसाब से नाराज़ लोगों को एक जगह इक्ट्ठा किया, उनकी बातें सुनीं और उन्हें भरोसा दिया कि उनके साथ नाइंसाफ़ी नहीं होगी.
विदिशा में उनकी ऐसी ही यात्रा के बारे में संजीव श्रीवास्तव बताते हैं, “एक नाराज़ कांग्रेसी कार्यकर्ता दस से 15 मिनट तक दिग्विजय सिंह को भला-बुरा बोलता रहा. कांग्रेस को गालियां देता रहा, वो सुनते रहे. उसे बोलने दिया और आख़िर में उसे गले लगा लिया. ऐसा उन्होंने कई जगहों पर किया.”
लक्ष्मण सिंह बताते हैं, “दिग्विजय जी ने आम कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम किया है, जो नाराज़ हो गया था, उसकी नाराज़गी दूर की, दूर करने का भरोसा दिया. इन सबका असर हुआ. इसकी वजह से कांग्रेसी कार्यकर्ता पहले बूथ तक और बाद में मतदान केंद्रों तक डटा रहा.”
@sandeep